अरावली पर्वतमाला को लेकर एक बार फिर देशभर में बहस तेज हो गई है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा अरावली पहाड़ियों की नई कानूनी परिभाषा को स्वीकार किए जाने के बाद पर्यावरण संरक्षण से जुड़े संगठनों, स्थानीय निवासियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने गहरी चिंता जताई है। उनका कहना है कि इस फैसले से अरावली क्षेत्र की पारिस्थितिक सुरक्षा पर असर पड़ सकता है।
नई व्यवस्था के तहत अब किसी भी भू-भाग को अरावली पहाड़ी तभी माना जाएगा, जब उसकी ऊँचाई आसपास के क्षेत्र से कम से कम 100 मीटर अधिक हो और वह दूसरी पहाड़ियों से 500 मीटर के दायरे में स्थित हो। इस मानक के लागू होने के बाद कई छोटी और नीची पहाड़ियाँ अरावली की श्रेणी से बाहर हो गई हैं।
पर्यावरण विशेषज्ञों का मानना है कि इन पहाड़ियों के संरक्षण से बाहर होने पर खनन, निर्माण और पर्यावरणीय क्षति का खतरा बढ़ सकता है। वहीं, प्रदर्शन कर रहे लोगों की मांग है कि अरावली पर्वतमाला को उसकी प्राकृतिक संरचना के आधार पर ही संरक्षित रखा जाए, ताकि आने वाली पीढ़ियों के लिए यह प्राकृतिक ढाल सुरक्षित रह सके।
पर्यावरणविदों और आंदोलनकारियों की प्रमुख चिंताएँ
पर्यावरण विशेषज्ञों और Save Aravalli अभियान से जुड़े लोगों का कहना है कि अरावली पहाड़ियों की नई परिभाषा से कई ऐसी पहाड़ियाँ संरक्षण के दायरे से बाहर हो सकती हैं, जो भले ही ऊँचाई में छोटी हों, लेकिन पारिस्थितिक दृष्टि से बेहद अहम हैं। उनका मानना है कि इससे पर्यावरण पर दूरगामी असर पड़ सकता है।
विशेषज्ञों के अनुसार, इन पहाड़ियों के कमजोर पड़ने से:
- भूजल स्तर और पानी की गुणवत्ता प्रभावित हो सकती है
- वायु प्रदूषण में बढ़ोतरी हो सकती है
- मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया तेज हो सकती है
- दिल्ली-NCR और आसपास के इलाकों में पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ सकता है
पर्यावरणविदों का कहना है कि अरावली पर्वतमाला उत्तर भारत के लिए एक प्राकृतिक सुरक्षा कवच की तरह काम करती है, जो प्रदूषण और रेगिस्तान के विस्तार को रोकने में अहम भूमिका निभाती है।
इसी आशंका के चलते गुरुग्राम, उदयपुर और आसपास के क्षेत्रों में ‘अरावली बचाओ’ के नारे के साथ विरोध प्रदर्शन तेज हो गए हैं। इन आंदोलनों में पर्यावरण संगठन, सामाजिक कार्यकर्ता, वकील और स्थानीय नागरिक सक्रिय रूप से हिस्सा ले रहे हैं और सरकार से अरावली के पूर्ण संरक्षण की मांग कर रहे हैं।

सरकार का पक्ष: संरक्षण में कोई ढील नहीं
अरावली पहाड़ियों की नई परिभाषा को लेकर उठ रहे सवालों पर केंद्र सरकार ने अपना पक्ष साफ किया है। केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव ने कहा है कि इस बदलाव से खनन गतिविधियों को किसी भी तरह की छूट नहीं दी गई है। उनका दावा है कि अरावली क्षेत्र का 90 प्रतिशत से अधिक हिस्सा पहले की तरह पूरी तरह संरक्षित रहेगा।
मंत्री ने यह भी स्पष्ट किया कि केवल 0.19 प्रतिशत क्षेत्र में ही सीमित परिस्थितियों में खनन की संभावनाएँ बन सकती हैं, जबकि शेष पूरे इलाके में पर्यावरणीय नियमों और संरक्षण कानूनों को सख्ती से लागू किया जाएगा। सरकार का कहना है कि नई व्यवस्था का उद्देश्य केवल कानूनी अस्पष्टताओं को दूर करना है, न कि पर्यावरण को नुकसान पहुँचाना।
स्थानीय समुदायों की आवाज़ और सियासी हलचल
अरावली को लेकर स्थानीय स्तर पर भी समर्थन और विरोध दोनों देखने को मिल रहे हैं। राजस्थान के कई इलाकों में आदिवासी समुदायों ने अरावली पर्वतमाला को अपनी संस्कृति, आजीविका और पहचान से जुड़ा बताते हुए इसके संरक्षण का संकल्प दोहराया है। उनका कहना है कि अरावली केवल पहाड़ नहीं, बल्कि जीवन का आधार है।
वहीं, इस मुद्दे ने राजनीतिक रूप भी ले लिया है। विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं ने नई नीति पर सवाल उठाते हुए सरकार से परिभाषा पर पुनर्विचार की मांग की है। इसे लेकर विधानसभा से लेकर सड़कों और सोशल मीडिया तक बहस तेज हो गई है और इसके सामाजिक व राजनीतिक प्रभावों पर चर्चाएँ जारी हैं।
आगे की राह क्या होगी?
अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट और सरकार द्वारा तय की गई नई परिभाषा वास्तव में पर्यावरण संरक्षण को कितना मजबूत बना पाएगी। पर्यावरण विशेषज्ञों को चिंता है कि कहीं छोटी और कम ऊँचाई वाली, लेकिन पारिस्थितिक रूप से महत्वपूर्ण पहाड़ियाँ भविष्य में संरक्षण से वंचित न रह जाएँ।
पर्यावरण कार्यकर्ताओं की मांग है कि पूरी अरावली पर्वतमाला को एक सख्त संरक्षित क्षेत्र घोषित किया जाए, ताकि पारिस्थितिक संतुलन, जल स्रोतों और जैव विविधता की रक्षा सुनिश्चित की जा सके।